देशभक्ति | desh bhakti | poetry

 सत्ता के लालच ने आँखों पर ऐसा पर्दा पोया है।अपने हाथों को लोगो ने देशद्रोह से धोया है। 

गद्दारो की कमी नही जो बेच देश को खाते है कुछ रुपयों के खातिर वो अपना वतन जलाते है ।

है आदत उन नीचों की देशद्रोह फैलाने की कुर्सी के खातिर न जाने कितना खून बहाने की।

आजादी की कीमत का इनको न अंदाजा है बेड़ियो में पड़े हुए है ये इनकी परिभाषा है।

सूली पर चढ़ी लाशें भी आजादी दिखलाती है।

 जब 57 कि वो तलवार भीषण नृत्य दिखाती है। गांधी की लाठी ने भी आंदोलन बहुत करवाए थे, वो आजादी की चिड़िया थी सहाब जिसने इतने रक्त बहाए थे।

बटवारा भी हुआ देश का जब अलग ध्वज फहराए थे, मजहबो के खातिर ये अलग मुलख कहलाए थे। 

कश्मीर के खातिर लड़ना ये आए दिन का मुद्दा हैं हर बार मार खाकर भी ये वार पीठ पर करता है ,

 हुआ जो भी वो भूलना ही सही विचार है क्योंकि देश भक्ति तो बटवारे के बाद भी बरकरार है , 

युही नही सरहद कूद दफन होने ये यहाँ आते बार बार है।




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